हम बैठे दरबार पाट तुम बैठो डेरे पाट Featured
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पाटा बीकानेर की रियासतकालीन संस्कृति का एक भाग है लेकिन परकोटा युक्त शहर मे यह अपने आप मे संस्कृति है। वास्तव मे पाटा भौतिक दृष्यमान वस्तु है जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है तथा मूक दर्शक के रूप मे गतिहीन मगर चेतन है। लेकिन पाटो का एक सांस्कृतिक क्षेत्र है । धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों मे पाटों की उपस्थिति आवश्यक है। पाटा पूर्वजों की कर्मस्थली है। तभी तो इस परकोटा युक्त शहर मे 80 वर्षों की स्त्री पाटों के आगे से निकलते समय सिर अवश्य ढकती है। जबकि पाटों पर उनकी सन्तान के बराबर के व्यक्ति बैठे होते थे। जब उस स्त्री से पुछा गया की आपने सिर क्यों ढका है ? तो उस औरत का उत्तर था कि पाटा हमारे दादा ससुर व ससुर की पहचान व बैठने की जगह है। उनकी आत्मा तो पाटों पर ही रहती है क्योंकि उन्होने पूरा जीवन इन्हीं पाटों पर बिताया है। इस दृष्टि से मानवशास्त्रीय अर्थ मे पाटा टोटम है जो एक पवित्र वस्तु होने के साथ साथ सामाजिक निंयत्रण का कार्य करता है।
पाटा परम्परा का इतिहास
परम्परा तो शाश्वत है, जो स्वत: विकसित होती है जिसके पीछे ऐतिहासिक व तात्कालीक कारक उत्तरदायी होते है जो समय के साथ धीरे धीरे सामाजिक विरासत व सामाजिक प्रतिमान बन जाती है।
जांगल देश के दक्षिण में राटी घाटी के टीले पर विक्रम संवत 1542 (ईसवी 1485) चैत्र मास की तृतीया को राव बीका ने शुभ लक्षण व मुहुर्त देखकर खुंटा रोप कर नए गढ़ की नीव रखी और विक्रम संवत 1545 वैषाख सुदी दुज (ईसवी1488, तारीख 12 अप्रैल) को जब गढ़ सोभाग्यदीप का निर्माण पूर्ण हो गया तो उसी दिन सुर्य की प्रथम किरण के साथ गढ़ की मण्डेर पर शंखनाद और चंदा उड़ाकर नए राज्य बीकानेर की स्थापना की घोषणा की।
पनरे से पैतालवे, सुद वैषाख सुमरे ।
थावर बीज थरप्पियो, बीके बीकानेर ।।
लेकिन उन्होने संकल्प लिया कि जब तक वे अपने वंश के पवित्र सिंहासन शाही तख्त (पाट) पर नही बैठेंगे तब तक वे अपने दरबार मे किसी अन्य सिंहासन पर नही बैठेंगे और अपने आप को राजा भी नही मानेंगे।
उसी वर्ष उनके पिता राव जोधा की मृत्यु हो जाती है, उनके पिता ने उन्हें वचन दिया था कि जब तक वे जिंदा है वंष के राजचिन्ह उन्हीं के पास रहेंगे। उनकी मृत्यु के बाद ये राजचिन्ह तुम्हे मिल जाऐंगे। राव जोधा की मृत्यु के बाद उनका पुत्र सांतल जोधपुर का राजा बनता है। लेकिन वह कुछ समय बाद ही युद्ध में हारा जाता है। तब उनका छोटा भाई सुजा गद्दी पर बैठता है। राव बीका अपने सलाहाकार पडि़हार बेला को सुजा के पास जोधपुर भेजता है। किन्तु सुजा ने राजचिन्ह देने से मना कर दिया, तब राव बीका विशाल सेना लेकर जोधपुर पर चढ़ाई कर देता है। दस दिन तक जोधपुर के गढ़ को घेरे रखता है। गढ़ मे राशन पानी की कमी हो जाती है, अन्त मे उसकी मां जसमादे स्वयं बीका से मिलने आती है और राव बीका से कहती है कि तुमने तो अपना नया राज्य स्थापित कर लिया अपने भाईयो को रखेगा तो वे रहेंगे तब बीका ने उत्तर दिया 'माता में तो पिता को पहले ही जोधपुर पर शासन न करने का वचन दे चुका हूं, मैं तो पुजनीक चीजे लेने आया हूं, जिसका वचन मेरे पिता ने मुझे दिया था।ÓÓ तब मां ने बीका को ये पुजनीक चीजे दे दी। जिनको लेकर राव बीका बीकानेर लौट आया।
इन राजचिन्हो मे छत्र, चंवर, ढाल, तलवार, कटार, नागणेचीजी देवी की अठारहभुजी मूर्ति, शाही तख्त, करण्ड, भंवरढोल, बैरीसाल, नगाड़ा, दलसिगार घोड़ा और भुजाई है। जिनमे तख्त राजदरबार का पवित्र सिंहासन है। जो बीकानेर रियासत का पवित्र पाट है। जब राव बीका इस तख्त पर बैठे तब उन्होने अपने सरदारों से कहा था कि 'हम बैठे अपने दरबार पाट, तुम सब बैठो अपने डेरे पाटÓ अर्थात आज से हम दरबार मे सिंहासन पर बैठ गये है और तुम सब भी अपने डरे (मकान) मे सिंहासन पर बैठो। उसी दिन से पाटे डेरो के आगे लगने लगे। धीरे धीरे रियासत के दीवानों, सामंतो, साहुकारो और राजवर्गीय परिवारो के मकानों, जातिय पंचायतों व मंदिरो के आगे पाटे लगने लगे और धीरे धीरे यहां की सामाजिक सांस्कृतिक परम्परा के अभिन्न अंग बन गये।
सेठ राजमल ललवाणी की पुस्तक ओसवाल जाति के इतिहास 1934 मे आपने बीकानेर के दीवान कर्मचन्द बच्छावत की हवेली 1574 ईसवी मे हवेली के आगे तख्त लगे होने का उल्लेख किया है। उसी प्रकार बीकानेर के शासक जोरवार सिंह (1740) के शासन मे मोहता दीवान बखतावर सिंह की हवेली के आगे पाटा रखा हुआ था। इसका उल्लेख हरसुखदास मोहता की बही (1906) मे मिलता है। गौरीशंकर हीराचन्द औझा ने बीकानेर राज्य इतिहास में बख्तावर सिंह की हवेली को उस समय की सबसे बड़ी हवेली बताया है। जिनकी राजशाही से तत्कालीन मंत्री और अन्य राजवर्गी जलते थे।
कवि श्री उदयचन्द खरतरगच्छ मथेन की 'बीकानेर गजलÓ सन 1708 नामक रचना मे नगर व बाजार वर्णन काव्य मे चौक का सन्दर्भ शामिल है, जिसमे लिखा गया है कि -
चौहटे बिच सुन्दर चौक, गुदरी जुरत है बहु लोग ।
सुन्दर सेठ बैसे आय, वागे खूब अंग बणाय ।
अर्थात बाजार के बीचोंबीच चौक (पाटे) लगे हुए है जिन पर सेठ साहुकार आकर बैठते है और व्यापार परिवार तथा संसारभर की बातें करते हैं।
1840 मे महाराजा रत्नसिंह के दीवान हिन्दुमल वैद जिनको महाराव का खिताब प्राप्त था और जिनके नाम से ही पाकिस्तान बॉर्डर पर हिन्दुमल कोट बनाया गया। जिनकी हवेली पर महाराज रत्नसिंह स्वयं गये और उनकी हवेली के आगे लगे पाटे पर बैठकर दीवान साहब की शान को ओर बढ़ावा दिया था।
इसके अलावा जातीच पंचायतों की बहिंयो मे भी पाटो की स्थापना का उल्लेख मिलता है। जैसे सूरदासाणी पंचायत की बही में सन् 1809 मे पाटों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। लखोटियो के चौक मे लखोटियों की पंचायत बही में भी मन्दिर के पाटे का निर्माण 1782 मे दर्शाया गया है। मोहता चौक मे सादाणी जाति की पंचायत का पाटा भी 18वी शताब्दी में मौजूद था और निरन्तर शहर के अलग-अलग मौहल्लों और चौकों में पाटे लगते गए।
अभी शहर में 89 पाटे
वर्तमान के किये गए सर्वे के अनुसार शहर मे 89 पाटे स्थित है जिसमें कुछ सार्वजनिक तो कुछ निजी पाटे हैं।
सामान्य तौर पर पाटा लकड़ी या लोहे से निर्मित बैठक या चौपाल है जिस पर मोहल्ले के निवासी बैठकर अपना सुख दुख बॉटते है। लेकिन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से पाटा परकोटायुक्त शहर की नियामक इकाई है, जिस पर अनेक परम्पराएॅ एवं रीति रिवाज सम्पन्न होते है। पाटा जिसे परिवार एवं सार्वजनिक दृष्टि मे अनेक नामों से पुकारा जाता है जैसे परिवार मे पाटो को तख्त, बाजौट, चौकी कहा जाता है। लेकिन मोहल्ले मे लगे पाटों को पाटा, चौक तथा बैठक भी कहा जाता है। लेकिन पाटा शब्द ही सबसे ज्यादा लोकप्रिय एवं सर्वप्रचलित शब्द है। इसीलिए बीकानेर के लोक जीवन को पाटा गजट, पाटाबाजी, पाटामार, पाटा बोलता है, पाटा संस्कृति आदि उपनामो से साहित्य एवं मीडिया मे पहचाना जाने लगा है। अत: पाटा एक लघु सामाजिक परम्परा है, जो परकोटायुक्त शहर की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिवेश का वाहक एवं निर्णायक घटक है। जिस पर अनेक सांस्कृतिक इकाईयां केन्द्रित हैं।
डॉ राजेंद्र जोशी, व्याख्याता, समाजशास्त्र

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